Ransigha

Ransigha Uttarakhand

रणसिंघा भारत का एक प्राचीन संगीत वाद्ययंत्र है। जो भारत के प्राचीन संगीत वाद्ययंत्रों के होने के साथ साथ उत्तराखंड के लोक संगीत में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था। रणसिंघा के नाम से ही स्पष्ट है, “रणभूमि में सिंह की जैसे गर्जना करने वाला”  क्योंकी यह युद्ध को प्रारम्भ करने की घोषणा के लिए  बजाये जाते थे। यह एक प्राकृतिक तुरही की जैसी होती है, जिसमें बहुत पतली धातु के चार पाइप होते हैं जो एक के भीतर एक फिट होते हैं।

पहले गढ़वाली लोक नाटक, लोक अनुष्ठान, सामुदायिक थिएटर और पारंपरिक नाटकों में प्रयुक्त होने वाला वाद्ययंत्र था। जो धातु से बनी होती है, जिसे प्रायः मांगलिक पर्वों पर भी बजाय जाता था। रणसिंहा के अन्य नाम जैसे तुरी, तुरही, बुगडु, नरसिंह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बोले जाते हैं।

 

 

  • ऐसा माना जाता है कि जब देवताओं ने राक्षसों पर लड़ाई जीत ली तो रणसिंघा को जीत के जश्न के लिए बजाया गया था,रणसिंह की उत्पत्ति युद्ध के मैदान में हुई है। रणसिंघा को जीत का प्रतीक माना जाता था। और लोक अनुष्ठानों और लोक गीत कार्यक्रमों, लोक नाटकों आदि में बजाया जाता था।
  • रणसिंघा को 14 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में या 15 वीं शताब्दी की शुरुआत में संगीत वाद्ययंत्र के रूप में उपयोग करने लग गए थे । 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से इसका निर्माण होना प्रारम्भ हो गया था, और साथ ही साथ कला संगीत शैलियों में प्रयोग किया जाने लगा
  • रणसिंघा एक पीतल उपकरण होता है ,एक प्राकृतिक तुरही के जैसी होती है जिसमें बहुत पतली धातु के चार पाइप होते हैं जो एक के भीतर एक फिट होते हैं। कोई छिद्र नहीं होता, केवल हवा फूँककर उसके विभिन्न दवाबों के माध्यम से ऊँचे-नीचे स्वरों की उत्पति की जाती है, इसीलिए इसमें दो-तीन स्वर बहुत तेज आवाज़ से निकलते हैं।
  • रणसिंघा हवा में पकड़कर संकरा होता है। वाद्ययंत्र अंग्रेजी वर्णमाला के S के आकार का होता है। रणसिंह के दो भाग हैं और एक भाग दूसरे में फिट होता है एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए सहायक होता है ,
  • रणसिंघा सभी सात स्वरा या नोटों का उत्पादन गुणात्मक रूप से करता है। इसकी आकृति अर्धचन्दाकार रूप में होती है और यह फूँककर बजाया जाता है। जो मुँह की ओर पतली और पीछे की ओर चौड़ी होती है।
  • इसे पीतल, तांबे या पुराने समय में चांदी के द्वारा बनाया गया है। रणसिंघा की साधारणतः लंबाई 108 सेंटीमीटर और इसके मुंह का व्यास 14 सेमी होता है। रणसिंघा को मजबूत बनाने के लिए पीतल के कर्व चार या पांच हो सकते हैं।
  • रणसिंघा की लगभग 4 फीट 10 इंच की नली की आकर की लंबाई होती है। शुरुआती रणसिंघा की लंबाई को बदलने के साधन उपलब्ध नहीं थे, जबकि आधुनिक उपकरणों में आमतौर पर तीन पिच बदलने के क्रम में तीन या चार वाल्व लगे होते हैं। जिनको व्यवस्थित करके इसके स्वर में को अधिक किया जा सकता है।
  • अधिकांश रणसिंघा में वाल्व के भी अलग अलग प्रकार होते है। तो उपकरण की पिच को कम करने, ट्यूबिंग की लंबाई बढ़ जाती है।
  • अधिकांशत: रणसिंघा पीतल आदि की बनती है और टेढ़ी या सीधी कई प्रकार की हो सकती है। पहले यह लड़ाई में नगाड़े आदि के साथ बजाई जाती थी। लेकिन अब इसका प्रयोग विवाह आदि में होने लगा है।
  • धातु से बना एक साज़ जिसे फूँककर बजाया जाता था। यह संकेत देने के लिए बजाया जाता था ,जैसे की जो खास तौर पर मंडली को इकट्ठा करने, पड़ाव उठाने और युद्ध का ऐलान करने के लिए और संगीत में भी इस्तेमाल किया जाता था। प्रा
  • प्रारम्भ में ये सीधे होते थे जबकि नरसिंगे मुड़े होते थे और जानवरों के सींग से बने होते थे। मंदिर में बजाए जाने वाले साज़ों में रणसिंघा के साथ साथ तुरहियाँ भी शामिल थीं, इनकी आवाज़ का लाक्षणिक तौर पर भी इस्तेमाल हुआ करता है।

 

उत्तराखंड में अब रणसिंघा न के बराबर ही  दिखाई देते है।  लोक संस्कृतियों में भी इसका किसी प्रकार का कोई महत्व नहीं दीखता। जहा ये भारत के अन्य राज्यों में आज  भी लोगो द्वारा उपयोग किये जाते है, वही पर उत्तराखण्ड में  ये पुरातन वाद्य यंत्रो की श्रेणी में ही  आते है।