Dhol Damau

Dhol_Damau Uttarakhand

ढोल और दमाऊं उत्तराखंड के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय वाद्य यंत्र हैं। इनको "मंगल वाद्य" के नाम से भी जाना जाता है। वे शुरू में युद्ध के मैदान में सैनिकों के बीच उत्साह पैदा करने के लिए इस्तेमाल किए गए थे। युद्ध के मैदानों से, ढोल दमाऊं लोगों के सामाजिक जीवन में प्रवेश करते चले गए। पहाड़ के शुभकार्य उत्तराखंड के वाद्ययंत्र ढोल-दमाऊं की गूंज के बिना अधूरे होते थे।
15वीं शताब्दी में ढोल को भारत में लाया गया था। ढोल पश्चिम एशियाई मूल है। आईन-ए-अकबरी में पहली बार ढोल के बारे में उल्लेख किया गया है। इसका अर्थ है कि सोलहवीं शताब्दी के आसपास गढ़वाल में ढोल की शुरुआत की गई थी। ढोल दमाऊं वादक को औजी, ढोली, दास या बाजगी आदि पारंपरिक नामों से भी कहा जाता है। औजी वास्तव में भगवान शिव का नाम है।एक पहाड़ी राज्य होने के नाते, उत्तराखंड के नाम में कई प्रशंसाएँ हैं। चाहे हम इसकी विविध संस्कृति, परंपराओं, संगीत, कला रूपों और यहां तक कि इसके उपकरणों के बारे में बात करते हैं जिन्होंने पहाड़ियों की गूँज को उनके लकड़ी के ढांचे के अंदर बसाया है।

 

ढोल दो तरफा ड्रम है। ढोल और दमाऊं को बजाने के लिए दो लोगों की जरूरत होती है। जैसे सभी को सहायक की जरूरत है वैसे ही ढोल दमाऊं भी एक-दूसरे के सहायक हैं। यह एक तरफ से लकड़ी की छड़ी और दूसरी तरफ से हाथ से बजाया जाता है। ढोल ताम्बे और साल की लकड़ी से बना होता है। इसके बाएं तरफ बकरी की और दाएं तरफ भैंस या बाहरसिंगा की खाल होती है। जबकि दमाऊं, ताम्बे का बना हुआ एक फुट व्यास तथा 8 इंच गहरे कटोरे के सामान होता है। इसकी खाल मोटे चमड़े की होती है।हमारे उत्तराखंड में ३३ करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं। दमाऊं भगवान शिव का और ढोल ऊर्जा का रूप है। ऊर्जा के अंदर अपनी शक्ति है। ढोल और दमाऊं का रिश्ता पति-पत्नी की तरह जैसे शिव-शक्ति जैसा है।

 

 

 

  • ढोल को प्रमुख वाद्य यंत्र में इसलिए शामिल किया गया क्योंकि इसके माध्यम से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। कहा जाता है, ढोल दमाऊं प्रार्थना के दौरान अपने भगवान और देवी-देवताओं को बुलाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला पारंपरिक वाद्य यंत्र है।
  • पहले के समय में, पहाड़ में होने वाली शादियों के यह अभिन्न अंग हुआ करते थे। मंगनी और शादी के दौरान ढोल दमाऊं बजाकर लोग अपनी खुशी ज़ाहिर करते हैं। इनकी गूंज से मेहमानों का स्वागत किया जाता है।
  • खास बात यह होती है कि शादी में दोनों पक्षों वर और कन्या के अपने अपने ढोल वादक होते हैं। वर पक्ष वाले जब घर से निकलते हैं तो ढोल-दमाऊं बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया जाता है। ठीक उसी तरह, कन्या पक्ष के ढोल वादक अपने यहां के अतिथियों का ढोल से स्वागत करते हैं।
  • रात होने पर ढोल-दमाऊं के जरिये कुछ विशेष ताल बजाते हैं।ढोल दमाऊं में कई तरीके की ताले बजायी जाती हैं। उन तालों के समूह को ढोल सागर भी कहा गया है। ढोल सागर में १२०० श्लोक लिखे गये हैं। इन तालों के माध्यम से वार्तालाप व विशेष सन्देश का आदान-प्रदान भी किया जाता है।
  • अलग अलग समय पर अलग-अलग ताल बजायी जाती है, जिसके माध्यम से इस बात का पता चलता है कि कौन-सा संस्कार या अवसर है। जो देवी-देवता अदृश्य हैं उन्हें जागृत करने के सबसे पहले बजाये जाने वाला ताल, मंगल बधाई ताल है।
  • धुयाल ताल मंदिरों में बजायी जाती है। यह भगवती को प्रकट करने के लिए बजायी जाती है। धुयाल ताल से अभिप्राय दैत्य-संहार से भी है। माना जाता है,देवी दुर्गा ने धुयाल ताल में 1600 राक्षसों का वध किया है।
  • शादी और हल्दी हाथ में, ( एक समारोह जिसमें दुल्हन या दूल्हे को हल्दी लगाई जाती है ) औजी एक अलग प्रकार की ताल बजाते है जिसे बधाई कहा जाता है।
  • बारात प्रस्थान करते समय रहमानी ताल बजायी जाती है व रुकी हुई बारात के लिए सब्द ताल बजायी जाती है।
  • छोटी नदी या नाले पार करते समय गढ़चल ताल बजायी जाती है.
  • पांडव नृत्य के लिए पांडो ताल बजायी जाती है।
  • ढोल और दमाऊं उत्तरांचल के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं।जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कोई भी संस्कार या सामाजिक गतिविधि इनके बिना अधूरी है।
  • औजी प्राय: समाज के निम्न वर्ग के लोग होते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी पूरी श्रद्धा और उल्लास से इस दायित्व को निभाते आ रहे हैं।हर महीने की शुरुआत में यह अपने क्षेत्रों के गाँवो के घरों में जाकर ये लोग ढोल दमाऊं बजाते हैं। इसके बदले में लोग इन्हें मदद के लिए गेहूँ, चावल, दाल, नमक, मसाले, पैसे आदि देते हैं।
  • अतः उत्तराखंड में जन्म से लेकर मृत्यु तक ढोल दमाऊं और औजियों की अहम भूमिका रही है।यद्यपि इस जातिगत वर्ण-व्यवस्था में काफी बदलाव आ चूका है, लेकिन उत्तराखंड में आज भी उच्च जाति के अधिकांश लोग इन निचली जाति यानी औजियों की छुई हुई कोई भी चीज़ नहीं खाते। इन्हे गाँव और समाज से भी अलग रखा जाता है। अतः यह आज भी पूर्णत उपेक्षित हैं।
  • वर्तमान समय में भी हमारे औजी समाज की स्थिति काफी दयनीय है। आज उनके पास अपने जीवन यापन के लिए कठोर संकट पैदा हो गया है।
  • आज शादी जैसे मांगलिक कार्यों में भी इनका महत्व काम हो गया है। लोग आधुनिक वाद्य यंत्रों को ज़्यादा बढ़ावा दे रहे हैं। इसमें ढोल दमाऊं का अस्तित्व गंभीर खतरे में है।
  • इसके साथ ही, औजी समाज की आजीविका पर भी इसका असर पड़ रहा है। यह लोग आर्थिक और सामाजिक संकट से परेशान हैं और इन वाद्य यंत्रों का परित्याग कर रहे हैं।
    लोगों के गाँव से शहरों की ओर पलायन करने से भी उनके जीवन पर असर पड़ रहा है।
  • इनमें से कुछ शराब के नशे की चपेट में भी आ रहे हैं, जिसकी वजह से इनके बच्चे व महिलाओं का जीवन भी प्रभावित हो रहा है।
  • अतः जहाँ एक ओर यह वाद्य यंत्र खत्म होते जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन औजियों की जातियों के लुप्त होने की आशंका भी बढ़ती जा रही है।उत्तराखंड के प्राचीन ढोल वादक ढोल नगाड़ों के प्रति अगाध समानता रखते हैं। इसने शुरुआत से ही अपना आकर्षण बनाए रखा है।

 

 


हमें किसी तरह इन वाद्य यंत्रों और इनके बजाने वाले कलाकारों का संरक्षण करना पड़ेगा। अन्यथा, हम अपनी पहाड़ी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा खो देंगे। अब उत्तराखंड सरकार भी इसे बढ़ावा देने के लिए कदम उठा रही है।