Algoza

Algoza Uttarakhand

उत्तराखंड की लोक संस्कृति में इस प्रकार के वाद्य यन्त्र मिलते है, जिनमे विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के अनुरूप भावनाओं को अभिवयक्त करने की क्षमता पायी जाती है । अल्गोज़ा नामक वाद्य यन्त्र उनमे से एक है, यह बांस से बनी एक दोहरी बांसुरी होती है, जो की  बैगपाइप (मशकबीन) के सिद्धांत पर ही कार्य करती  है। मुख्यतः अलगोज़ा एक संगीत वाद्ययंत्र है जो सिंधी संगीत से उत्पन्न हुआ है। यह एक बांसुरी जैसा वाद्य यंत्र है जिसमें एक जोड़ी लकड़ी के पाइप होते हैं। बाद में राजस्थान और फिर उत्तराखंड की लोक संगीत का हिस्सा बना ,अल्गोज़ा को सतारा, दो-नल्ली और जोरही के नाम से भी जाना जाता है।

जहा उत्तराखंड में इसे अल्गोज़ा नाम से जाना जाता है, वही सिंधी में पादुथम्बी,पंजाबी में शाहमुखी, गुजरती में जोड़ी पाव और कच्छी भाषा में जोधा पाव कहा जाता है।

 

 

  • इस उपकरण का राजस्थानी, बलूच और पंजाबी संगीत में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, प्रारम्भ में यह सिंधी संगीतकारों द्वारा उपयोग किया जाता था ,समय के साथ साथ यह भारत के अन्य हिस्सों में फैला और इसी बीच उत्तराखंडी लोक संस्कृति का हिस्सा भी बन गया ।
  • अल्गोज़ा बांसुरी काष्ठ वाद्य परिवार का एक संगीत उपकरण है। यह काष्ठ से निर्मित वायु से चलने वाले उपकरणों की एक जोड़ी है। इसे मटियोन, जोरी, पाव झाड़ी, दो नालि, डोनल, गिर, सतारा या नागेज़ भी कहा जाता है।
  • अल्गोज़ा बांसुरी को या तो एक साथ बांधा जाता है या हाथों से शिथिल रूप से एक साथ रख कर बजाया जा सकता है। हवा का एक निरंतर प्रवाह होना आवश्यक है क्योंकि वादक एक साथ दो बांसुरियों को संतुलित करता है।
  • इसमें दो सम्मिलित बांसुरी, एक राग के लिए, दूसरा ध्वनि के परवाह के लिए है,प्रत्येक ताल पर सांस की त्वरित पुनरावृत्ति एक लय का निर्माण करती  है।
  • अल्गोज़ा उपकरण में प्रारम्भ में एक ही लंबाई के दो बांसुरी पाइप होते थे, लेकिन समय के साथ, उनमें से एक को ध्वनि उद्देश्यों के लिए छोटा कर दिया गया था।
  • अल्गोज़ा बजाने के सन्दर्भ में जो दो बांसुरी पाइप होते है, वह एक के ही जोड़े हैं - एक लंबा और एक छोटे आकर में पतले बस के डंडे के सामान दिखने वाला वाद्य यंत्र है। मोम के उपयोग से, यंत्र को किसी भी धुन में ढाल दिया जा सकता है।
  • अल्गोज़ा को बजने की कला में महारत हासिल करना कठिन कार्य माना जाता है ।इसमें दो बाँसुरियाँ एक साथ बजाई जाती हैं। वादक एक बाँसुरी से लगातार एक ही सुर निकालता रहता है और दूसरी पर अपनी उँगिलयों से सुर को धुन में बदलता रहता है।
  • दो बांसुरी में से एक आमतौर पर एक निरंतर बजती रहती है, जबकि दूसरी वाली अलग-अलग ताल को बजाती है। वादक को श्वाश की कला को थोड़ा-थोड़ा करने के लिए भी अल्गोज़ा के विराम दिए बिना बजाते रहना पड़ता है।
  • इसका उपयोग पंजाब के पारंपरिक और लोक संगीत में किया जाता है। यह पंजाबी फ्यूजन और भांगड़ा संगीत में भी एक लोकप्रिय विकल्प बन गया है। यह राजस्थानी और बलूच लोक संगीत का एक महत्वपूर्ण वाद्य यंत्र है।

एक कवि द्वारा अलगोज़ा के लिए  बहुत ही  सुन्दर पंक्तियों में लिखा गया है की -

" सुर साधने का प्रयत्न और अपने अपने अंत: और बाहरी दुनिया के बाँसुरियों से उसके लिए द्वंद्व और दौड़ की धुन है अलगोज़ा"

 

  • उत्तराखंड की अपनी संस्कृति की लुप्त होने के हाशिये पर जहाँ कुछ ही वाद्य यन्त्र ही ज्ञात है, वही अल्गोज़ा भी स्थानीय लोगो द्वारा विस्मृत कर दिया गया है। जहाँ यह दूसरी संस्कृति के लोगो द्वारा आज भी प्रयोग किया जाता है, वही हम में से बहुत लोग इसका नाम भी नहीं जानते होंगे।
  • लोक संगीतकारो के द्वारा भी अपने संगीत में अलगोजे कोई महत्व नहीं दिया गया, जिस कारण अब यह पुराने समय के वाद्य यंत्रो का हिस्सा बन कर ही रह गया।