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हिसालु गोल्डन हिमालयन रास्पबेरी या येलो हिमालयन रास्पबेरी के रूप में पहाड़ी फल है,रंग के आधार पर मुख्यतः तीन प्रकार का होता है। परन्तु हिमालयी और उत्तराखंड के क्षेत्रों में पाया जाने वाला यह फल मुख्य रूप से नारंगी होता है। बहुत नाजुक यह फल एक बाहरी आवरण से ढका रहता है। पहाड़ो में हर जगह इसकी यह प्रजाति पायी जाती है।

गोल्डन हिमालयन रास्पबेरी एक बड़ा झाड़ीदार पेड़ है । इसकी पत्तियाँ ट्राइफोलिएट, अण्डाकार, या लम्बी सीटी के साथ ओब्लेट और दांतेदार होती हैं। इसके फूल छोटे, सफेद होते हैं, और पांच पंखुड़ियों वाले होते हैं और गुच्छों में उगते हैं, और हिमालय में फरवरी और अप्रैल के महीनों में खिलते हैं। इसके फल मीठे और पक्षियों और हाथियों द्वारा अत्यधिक खाये जाने वाले  होते हैं। रूबस एलिप्टिपिकस (हिसालु) स्वाद के लिए मीठा होता है।

 

  1. असमिया-  जोटेलुपोका, जोटेली-पोका, बोरजेटुलिपोका
  2. उत्तराखंड-  हिसालु
  3. अंग्रेजी-     पीला हिमालयन रास्पबेरी
  4. गुजराती -   शुनु मुकर्रम
  5. हिंदी -        ललनचू, हिंसल
  6. कश्मीरी -    गौरीफल, हिसार
  7. मलयालम -  चेमुल्लु, मुल्लिपज़हम
  8. मणिपुरी -     हेईजंपेट
  9. नेपाली-         ऐंसेलु

 

 

  • ये वास्तविक "कार्बनिक" फल हैं। सीधे पेड़ों से ये छोटे जामुन पुराने दिनों में ऊपर जाने वाले यात्रियों के लिए ऊर्जा का स्रोत हुआ करते थे। फल रसदार और बहुत स्वादिष्ट है।
  • इस पौधे की छाल का उपयोग मुख्य रूप से वृक्क टॉनिक और एक एंटीडायरेक्टिक के रूप में तिब्बती गांवों में चिकित्सा कारणों से किया जाता है, इसके रस का उपयोग खांसी, बुखार, शूल और गले में खराश के इलाज के लिए भी किया जा सकता है।
  • पौधे को एक नीली-बैंगनी रंग बनाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • सिक्किम में, इसकी जड़ों का उपयोग पेट दर्द और सिरदर्द के इलाज के लिए किया जाता है, और इसके फलों का उपयोग अपच के इलाज के लिए किया जाता है।
  • इसके फलों में संभावित एंटीऑक्सिडेंट के लिए गोल्डन हिमालयन रास्पबेरी का भी अध्ययन किया गया है ,यह आमतौर पर मार्च-अप्रैल में पकता है और जुताई के बाद बहुत जल्दी नष्ट हो जाता है।
  • हिसालू में एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है। सेहत की दृष्टि से देखे तो यह बहुत से रोगों के उपचार के लिए बहुत ही फायदेमंद औषधि है, जैसे ट्यूमर, घावों को भरने, पेट दर्द बुखार जैसे बहुत से अन्य रोगों में भी इसका उपयोग किया जाता है।
  • इसकी खासियत यह है कि इसकी छाल, जड़े, फल, और पत्तियां सभी किसी न किसी रोग के उपचार में काम आते है।
  • इसकी जड़ो को कंडाली(बिच्छू घास) की जड़ो व जरुल की छाल के साथ कूटकर काढ़ा बनाकर बुखार में दिया जाए तो बहुत फायदेमंद होता है। इसके फलों के रास को पेट दर्द, बुखार, खांसी, गले के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है।
  • इसके पत्तियों का सेवन अल्सर जैसी बीमारियों को दूर करने में फायदेमंद है। हिसालू में  एंटीऑक्सीडेंट  की मात्रा पाए जाने के कारण इसका उपयोग कैंसर संबंधी रोग के उपचार के लिए भी इससे औषधि तैयार की जा रही है।
  • हिसालू में पोषक तत्वों की कोई कमी नही है इसमें कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, पोटेशियम, सोडियम व एसकरविक एसिड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसमें विटामिन सी, फाइबर, मैंगनीज़ पायी गयी है।
  • औद्योगिक रूप में भी हिसालु का उपयोग किया जाता है, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थो के निर्माण में इसका उपयोग किया जाता है जैसे जैम, जैली, विनेगर, चटनी व वाइन आदि,
  • हिसालु साइट्रिक एसिड, टाइट्रिक एसिड, का काफी अच्छा स्रोत माना गया है। यह पहाड़ी क्षेत्रों में मई जून के महीने में काफी मात्रा में पाया जाता है।

ऐसी ही वनस्पतियों को यदि रोजगार से जोड़ा जाए तो कुछ तो स्थानीय निवासियों और वह पर रोजगार हेतु लोगो को बहुत ही  फायदा होगा। ऐसी वनस्पतियों को यदि रोजगार से जोड़े तो शायद इसमें मेहनत भी कम हो सकती है क्योंकि यह स्वतः ही पैदा हो जाने वाली जंगली वनस्पतियो में से एक है।

उत्तराखंड ऐसी जड़ी बूटियों फल फूल और ऐसे ही कई वनस्पतियों से परिपूर्ण है किंतु हम इनका सही उपयोग नही करते। इसका पूरे विश्व मे लगभग 580 टन उत्पादन किया जाता है, किन्तु भारत का इस लिस्ट में कही भी नाम नही है जबकि भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में यह स्वतः ही उग जाता है, चाहे उत्तराखण्ड हो हिमाचल हो सिक्किम हो हर पहाड़ी क्षेत्रों में यह फल पाया जाता है।