Nanda Devi

Nanda_Devi Uttarakhand

कुमाऊं क्षेत्र के उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले के पवित्र स्थलों में से एक “नंदा देवी मंदिर” का विशेष धार्मिक महत्व है। इस मंदिर में देवी दुर्गा का अवतार विराजमान है। यह समुद्रतल से 7816 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर चंद वंश की ईष्ट देवी माँ नंदा देवी को समर्पित है। नंदा देवी माँ गढ़वाल एवं कुमाऊं की मुख्य देवी के रूप में पूजी जाती है। नंदा देवी गढ़वाल के राजा दक्षप्रजापति की पुत्री है, इसीलिए इन्हें पर्वतांचल की पुत्री भी कहा जाता है। माँ नंदा देवी मंदिर  की उत्तराखंड में इतनी विषेशता इस कारण भी है, क्योंकि नंदा देवी को “बुराई के विनाशक” और "कुमुण के घुमन्तु" का रूप माना जाता है। इसका इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना है।

 

  • नंदा देवी की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं। नंदा देवी मंदिर के पीछे कई ऐतिहासिक कथा जुड़ी है और इस स्थान में नंदा देवी को प्रतिष्ठित करने का सारा श्रेय चंद शासको को जाता है। कुमाऊं में माँ नंदा की पूजा का क्रम चंद शासको के समय से माना जाता है। 
  • इतिहासिक प्रमाणों के अनुसार सन 1670 में कुमाऊं के चंद शासक राजा बाज बहादुर चंद बधाणकोट किले से माँ नंदा देवी की सोने की मूर्ति लाये और उस मूर्ति को मल्ला महल जो की अब वर्तमान का अल्मोड़ा का कलेक्टर परिसर है, वहां स्थापित कर दिया गया। तब से चंद शासको ने माँ नंदा देवी को कुल देवी के रूप में माना और पूजा अर्चना करना प्रारम्भ कर दिया।
  • इसके पश्चात् बधाणकोट विजय करने के बाद राजा जगत चंद को जब नंदा देवी की मूर्ति नहीं मिली तो उन्होंने खजाने में से अशर्फियों को गलाकर माँ नंदा की प्रतिमा बनाई। मूर्ति बनने के बाद राजा जगत चंद ने मूर्ति को मल्ला महल स्थित नंदा देवी मंदिर में स्थापित करा दिया। सन 1690 में तत्कालीन राजा उघोत चंद ने पार्वतीश्वर और उघोत चंद्रेश्वर नामक “दो शिव मंदिर” को नंदा देवी मंदिर में बनाए। वर्तमान में यह मंदिर चंद्रेश्वर व पार्वतीश्वर के नाम से प्रचलित है।
  • इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि राजा बाज बहादुर प्रतापी थे। जब उनके पूर्वज को गढ़वाल पर आक्रमण के दौरान सफलता नहीं मिली, तो राजा बाज बहादुर ने प्रण लिया कि उन्हें युद्ध में यदि विजय मिली, तो वो नंदा देवी को अपनी ईष्ट देवी के रूप में पूजा करेंगे। कुछ समय के बाद गढ़वाल में आक्रमण के दौरान उन्हें विजय प्राप्त हो गयी और तब से नंदा देवी को ईष्ट देवी के रूप में भी पूजा जाने लगा।
  • नंदा देवी को नव दुर्गा का ही एक स्वरुप बताया गया है। भविष्यपुराण माँ दुर्गा के जिन स्वरूपों का उल्लेख किया गया है, उनमें महालक्ष्मी, नंदा, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं। 
  • कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा देवी के मंदिर स्थित हैं।
  • अल्मोड़ा में मां नंदा की पूजा-अर्चना तारा शक्ति के रूप में तांत्रिक विधि से करने की परंपरा है। पहले से ही विशेष तांत्रिक पूजा चंद शासक व उनके परिवार के सदस्य करते आए हैं।
  • नंदा देवी का मेला हर साल भाद्र माह की अष्टमी (नंदा अष्टमी) के दिन आयोजित किया जाता है। पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं। पंचमी की रात्रि से ही जागर (देवी देवताओं के आह्वान के लिए की जाने वाली पूजा) भी प्रारंभ कर दिए जाते हैं। माँ नंदा देवी की यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से बनाई जाती हैं।
  • मूर्ति का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी के जैसे बनाया जाता है। षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत एवम् पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्त्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाते है।
  • धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की ओर फेंके जाते हैं। जो स्तम्भ पहले हिलता है उसे देवी नंदा बनाया जाता है। जो दूसरी बार हिलता है उससे सुनंदा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं।
  • सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है। इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुंवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है। मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं।
  • दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं। अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं। नवमी के दिन माँ नंदा और सुनंदा को डोलो में बिठाकर अल्मोड़ा और आसपास के क्षेत्रो में शोभायात्रा के रूप में निकाली जाती है। 3-4 दिन तक चलने वाले इस मेले का अपना एक धार्मिक महत्व है।

 

  • राजजात या नंदाजात का अर्थ "राज राजेश्वरी नंदा देवी की यात्रा" है। गढ़वाल क्षेत्र में देवी देवताओं की “जात” बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। जात का अर्थ होता “देवयात्रा” है। लोक विश्वास यह है कि नंदा देवी हिंदी माह के भादव के कृष्णपक्ष में अपने मायके पधारती है। कुछ दिन के पश्चात उन्हें अष्टमी के दिन मायके से विदा किया जाता है। राजजात या नंदाजात यात्रा देवी नंदा को अपने मायके से एक सजी सवरी दुल्हन के रूप में ससुराल जाने की यात्रा है।
  • इस अवसर पर नंदा देवी को डोली में बिठाकर एवम् वस्त्र, आभूषण, खाद्यान्न, कलेवा, दूज, दहेज़ आदि उपहार देकर पारंपरिक रूप में विदाई की जाती है। कुमाऊंनी और गढ़वाली लोग उत्सव को माँ नंदा को मायके से ससुराल के लिए विदाई के रूप में मानते है। नंदा देवी राज जात यात्रा हर बारह साल के अंतराल में एक बार आयोजित की जाती है। हज़ारो श्रद्धालु या भक्त नंदा देवी राज जात में शामिल होते है और यात्रा की इस रस्म को बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है।
  • हिंदू पौराणिक कथाओं 'नंदा' की प्रमुख देवी व्यापक रूप से पार्वती, गौरी (तेजस्वी), उमा (प्रकाश), काली (अंधेरी) और भैरवी (भयानक) के रूप में जानी जाती हैं।
  • स्थानीय रूप से सम्मानित और उत्तराखंड में व्यापक रूप से लोकप्रिय, नंदा देवी मंदिर कुमाऊं क्षेत्र के शासक देवता होने की गरिमा रखता है और कुमाऊंनी लोग उस भूमि में होने का बढ़ावा देते हैं जहां देवी नंदा का जन्म हुआ था।
  • यह राजजात यात्रा भारतीय राज्य उत्तराखंड के कर्णप्रयाग तहसील में कर्णप्रयाग से 25 किमी. दूर नौटी गाँव से निकलती है। इस समारोह का उद्घाटन ग्राम कंसुआ के कुंवर ने किया। किंवदंती यह है कि भगवान शिव की पत्नी नंदा देवी ने अपना गांव छोड़ दिया और पर्वत पर चली गयी थी। इसलिए, जब यात्रा शुरू होती है, तो भारी बारिश होती है जैसे कि देवी रो रही हो। यह यात्रा कई गांवों को कवर करती है और रास्ते में, देवी भगवती गांव में अपनी बहन से मिलती है।
  • यह कठिन क्षेत्र होने के कारण यह यात्रा भी कठिन होती है। यात्रा के दौरान, एक झील है जिसे रूपकुंड के नाम से जाना जाता है जो सैकड़ों प्राचीन कंकालों से घिरा हुआ है। स्थानीय पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार एक राजा कुछ नर्तकियों को इस पवित्र स्थान पर ले गया। भारी बर्फबारी के कारण, कुछ लोग इसमें फंस गए थे और नर्तकियों को कंकाल और पत्थरों में बदल दिया गया था।

 

  • चंद राजाओं की अवधि के दौरान, नंदा देवी की पूजा ने एक मेले का आकार ले लिया। उस समय केवल नंदा देवी की एक मूर्ति की पूजा की जाती थी। दो मूर्तियाँ बनाने की प्रथा बाज बहादुर चंद के काल से शुरू हुई। आज भी सुदूर गांवों में केवल एक ही मूर्ति तैयार की जाती है। इस जोड़ का कारण यह प्रतीत होता है क्योंकि देवी नंदा और सुनंदा ने एक साथ शाही परिवार में राजकुमारियों के रूप में जन्म लिया था और इस नए पुनर्जन्म को चिह्नित करने के लिए, दोनों बहनों के लिए एक त्योहार मनाने की प्रथा शुरू की गई थी।
  • नंदा देवी और सुनंदा देवी पर्वत की दो चोटियों को इनका निवास स्थान कहा जाता है। ये सुशोभित चोटियाँ भारत के उत्तराखंड प्रांत के अधिकांश कुमाऊं मंडल से दिखाई देती हैं।

 

तीर्थयात्री और अन्य पर्यटक वर्ष के किसी भी समय अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर जा सकते हैं। लेकिन गर्मी के महीने मार्च से जून और वसंत के महीने सितंबर से नवंबर नंदा देवी मंदिर के दौरे के लिए सबसे अच्छा समय है। अल्मोड़ा में सर्दी अधिक होती है और मानसून की बारिश इस मार्ग को थोड़ा सा फिसलन बना देती है।