Gangnath Mandir Part 2

Gangnath_Mandir_Part_2 Uttarakhand

अगले दिन सूर्योदय के साथ ही प्रतियोगिता के आरम्भ का बिगुल भी फूंक दिया गया। सेनापती जी और गंगनाथ जी ने सभी प्रतीयोगिता में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। सभी दर्शक दोनों में से किसी एक की जीत देखने के लिए इंतजार कर रहे थे। उन्हें कोई एक जीतता नजर नहीं आ रहा था और यह देख के भाना की व्याकुलता और बढ़ रही थी।

अब प्रतियोगिता अपने अंतिम चरण में पहुँच गयी थी। इस चरण में दोनों वीरो का सामना एक भूखे शेर से होना था। भूखे शेर को युद्ध स्थल में बड़े से पिंजरे में लाया गया। शेर के गरजने की गूंज सुन कर चारों ओर संन्नाटा छा गया। सभी यह सोच रहे थे कि विजय किसकी होगी।चारों तरफ फैले संन्नाटे को भंग करते हुए राजा ने सबसे पहले सेनापति को शेर का मुकाबला करने को कहा और आज्ञा पाते ही सेनापति ने शेर के सामने कूद लगा दी। वह शेर के प्रहारों से अपने आप को बचाते हुए शेर पर वार करने लगे।

 

 

सेनापती अनुभवी थे उन्हें पता था शेर को कैसे पराजित करना है और वह अपना पूरा अनुभव प्रयास कर रहे थे। तभी युद्ध के दौरान शेर ने उन्हें घायल कर दिया। परंतु सेनापती ने युद्ध रोकने से मना कर दिया और शेर का सामना करते रहे। सेनापती जी की छोटी सी गलती होने पर शेर ने उन्हें मार दिया। सेनापती का यह हाल देख के सभी दर्शक बिलकुल शांत हो जाते है और एक वीर की मृत्यु पर शोक करने लगते हैं। तभी राजा उठते हैं और कहते है, “वीरो का काम ही होता है हमेशा वीरता से जीना। सेनापती चाहते तो युद्ध रुकवा सकते थे परंतु वह हार के जीना नहीं चाहते थे। वह एक सच्चे वीर थे और उनकी वीरगती पर हमें भी आँसू बहा कर उनकी वीरता का अपमान नहीं करना चाहिए बल्कि उन पर हमें गर्व करना चहिए कि इतना वीर पुरूष ने हमारे राज्य की बहुत सेवा की और युद्ध करते हुए वीर गती को प्राप्त हुए । हम सभी उनकी इस वीरता का सम्मान और उन पर गर्व करते है। सभी ने सेनापती कि जय-जयकार की और पुरा युद्ध स्थल सेनापती के जयकार से गूंजने लगा।“

इतना कहकर राजा ने प्रतिय़ोगिता को आगे क्रियानवित करने का आदेश दिया। इतना सुनते ही गंगनाथ जी ने शेर के सामने छलांग लगा दी। यह देखकर सभी ने अपनी सांसे थाम ली और चारों ओर फिर से शांति फैल गयी। गंगनाथ जी ने भी सेनापती कि तरह पहले शेर के वार से खुद को बचाते रहे और समय मिलने पर शेर पर वार करते रहे। पर शेर अधिक क्रोध मे दिख रहा था वह जल्द से जल्द गंगनाथ जी का वध करने के लिए पूरे बल से वार कर रहा था। शेर के क्रोध को देख के सभी भयभीत हो रहे थे और भाना भी यह सब देख कर अधीर हो रही थी। पर गंगनाथ जी शेर का मुकाबला पूरी वीरता से कर रहे थे। वह शेर के सीने और सर पर जोर-जोर के प्रहार कर रहे थे, जिससे शेर का क्रोध और बढ़ रहा था। ऐसा लगने लगा था कि जल्द ही शेर गंगनाथ जी को खाना चाहता है, परन्तु गंगनाथ जी उसे अच्छा जवाब दे रहे थे। तभी शेर ने अपनी पूरी शक्ति लगा कर गंगनाथ जी के ऊपर छलांग लगा दी कि सभी ने अपनी उंगलियां दातों तले दबा ली। पर गंगनाथ जी ने शेर के दोनों पंजों को अपनी न बलिष्ट भुजा से पकड़ के उन्हें चिरे हुए अपने पैरों से दबा लिया और अपनी ताकत का परिचय देते हुए शेर के मुख के दोनों जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ के शेर के मुँह को बीच से चीर दिया। सभी दर्शक गंगनाथ की ताकत को देख कर चकित रह गये। वे इतने शक्तिशाली पुरुष को देखकर आर्श्चय चकित भी हुए। इतना होते ही शेर का शरीर शिथल होने लगा। फिर गंगनाथ जी ने शेर के सिर पर एक शक्तिशाली प्रहार करके उसके जीवन का अंत कर दिया। शेर कि मृत्यु घोषित होते ही पूरी युद्धभूमि गंगनाथ जी के जयकारे से गूंजने लगी। सभी गंगनाथ जी की वीरता की चर्चा करने लगे और साथ ही यह भी कहने लगे ऐसा वीर शायद ही कहीं दूसरा हो।

राजा ने भी गंगनाथ जी को विजेता घोषित कर दिया और साथ ही गंगनाथ जी को सम्मान के तौर पर अपने राज्य के सेनापति का पद ग्रहण करने को कहा। गंगनाथ जी ने राजा का धन्यवाद किया और कहा, "हे राजन! अगर आप मुझे पहले शेर से युद्ध करने की आज्ञा देते तो शायद हम एक वीर को नहीं खोते।" तब राजा कहते है, "वीर का जन्म ही वीरगती के लिए होता है और वीरगती तो वीर का सबसे बड़ा पुरस्कार है। हम अपने पूर्व सेना पति की वीरता कभी नहीं भुला सकते। धन्य है, वो माता जिसने इतने वीर पुत्र को जन्म दिया। इतना कहते ही प्रतियोगिता के समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है। सभी गंगनाथ जी की वीरता की चर्चा करते हुए अपने घर चले जाते हैं।

 

 

राजा ने गंगनाथ जी को सेनापती वाले कक्ष में आराम करने को कहा और चले गये। इधर भाना गंगनाथ जी के विजयी होने से बहुत खुश थी, परन्तु जोशी जी उतने ही चितिंत थे क्योंकि उनकी योजना जो विफल हो गयी थी। पर वो हार मानने वाले न थे। उन्होंने अपनी बेटी को समझाने का प्रयास करने का मन बनाया।

घर जाकर जोशी जी ने भाना को बुलाया और कहा, "देख बेटी मैं तेरा पिता हूँ और तेरा भला ही चाहूंगा और मैं यह चाहता हूँ कि तु गंगनाथ को भूल जा।" यह शब्द सुन कर भाना रोने लगी और अपने पिता जी से विनती करने लगी की कि वो उनकी बात नहीं मान सकती। पर जोशी जी मानने को तैयार न थे। बहुत समझाने पर भी भाना, जोशी जी की बात मानने को तैयार नहीं हुई। तब जोशी जी ने क्रोध में कहा, "गंगनाथ ब्राह्मण धर्म का नहीं है और तेरा विवाह किसी गैर ब्राह्मण से नहीं हो सकता। ये सुनकर फिर भाना को भी गुस्सा आ गया और वह रोते हुए बोली, "बाबा गंगनाथ जी का साथ तो भगवान ने मेरे साथ बहुत पहले ही लिख दिया था, इसे कोई नहीं बदल सकता। मैं गंगनाथ जी के बिना जीवित नहीं रह सकती” और इतना कहकर रोते हुए अपने कमरे मे चली गयी। पर जोशी जी हार मानने को तैयार नहीं थे।

भाना भी गंगनाथ जी के बिना कुछ सोचने को तैयार न थी। भाना ने खाना-पीना सब त्याग दिया। जोशी जी अपनी बेटी की यह दशा नहीं देख सकते थे। परंतु वह गंगनाथ जी को भी स्वीकार करने को भी तैयार नहीं थे।

जोशी जी ने विचार किया जब तर्क से हल ना निकले तो राजनीती का प्रयोग कर लेना चाहिए और योजना बनाने लगे। जोशी जी भाना के पास गये और उसे प्यार से कहा, "बेटी! मैं तेरा विवाह गंगनाथ से कराने के लिए तैयार हूँ, पर तुझे मेरी बात माननी पड़ेगी।" भाना ये सुनकर खुश हुई और बोली, "बाबा" मैं आपकी सभी बात मानूंगी।" तब जोशी जी ने कहा, "हमारी जाति के कुछ लोग यहाँ आने वाले हैं। उनके आने के बाद ही तुम्हारा विवाह गंगनाथ से पूरी विधि के साथ हो पायेगा। तब तक तुम गंगनाथ से नहीं मिलोगी। तुम्हारा गंगनाथ से ऐसे मिलने से हमारी जग हसांई होगी और मैं गंगनाथ को भी यह बात बता दूंगा। भाना जोशी जी की बात मान जाती है, लेकिन जोशी जी तो कुछ और ही करने वाले थे।

जोशी जी ने गाँव के कुछ नौजवान और ताकतवर लोगों को इकट्ठा किया और उनसे कहा, "राजा जी का एक गुप्त संदेश है, कि गंगनाथ हमारे दुश्मन राज्य का जासूस है और वह यहाँ हमारे राज्य की खुफिया जानकारी लेने आया है। पर राजा को यह भी पता है कि वह बहुत ताकतवर है इसलिए उससे सामने से युद्ध नहीं किया जा सकता इसलिए उन्होंने गंगनाथ को सजा देना का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा है।"

राज्य में सभी जानते थे कि जोशी जी राजा के अत्यधिक घनिष्ट है तो वे सभी जोशी जी की बात पर सहमत हो गये। जोशी जी ने उन्हें काम हो जाने पर उनके परिवार से किसी एक को सेना में नौकरी और धन देना का वादा भी किया। लेकिन जोशी जी जानते थे ये लोग गंगनाथ जी का सामना नहीं कर सकते है तो उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा कि गंगनाथ अपनी रक्षा ना कर सकें।

जोशी जी ने एक सूचना गंगनाथ जी को भेजवायी कि "रात्री को गाँव के बाहर वाले कुएँ पर मिले। हमें अपनी बेटी के रिश्ते को लेकर कुछ बात करनी है इसलिए हो सकें तो अकेले आना।" गंगनाथ जी यह संदेश पढ़कर बहुत खुश हुए। वह यथा स्थान पर समय पर अकेले ही पहुँच गये और जोशी जी भी वहां पहले से ही मौजूद थे।

गंगनाथ जी ,जोशी जी को कुएँ कि दिवार पर बैठा देखकर, गंगनाथ जी उनके पास गये और बोले, "जी बोलिये! आपने क्या बात कहने के लिए मुझे यहाँ बुलाया।" जोशी जी कहते हैं, "अपनी बेटी की इच्छा को देखते हुए मैं उसका विवाह तुम से कराने को तैयार हूँ। तुम्हें कुछ कहना हो तो कह सकते हो।" इतना सुन के गंगनाथ जी बहुत खुश हो जाते है कि उन्हें बिन मांगे ही उनकी मुराद मिल गयी थी।

गंगनाथ जी खुशी में जोशी जी के चरणों में गिर कर कहते हैं, "मुझे कुछ नहीं कहना, आपने बिना कुछ कहे ही मुझे सब कुछ दे दिया। मैं भाना के हाथ के लिए जीवन भर आपका ऋणी रहूँगा।" इतना कहकर गंगनाथ जी उठने लगते है। तभी जोशी जी, गंगनाथ जी के सिर पर अपना हाथ रख देते हैं और उन्हें उठने ही नहीं देते। गंगनाथ जी कुछ समझ नहीं पाते और वैसे ही रुक जाते हैं। इतने में जोशी जी अपने द्वारा लाये हुए लोगों को इशारे से गंगनाथ जी पर वार करने को कहते हैं और उनमें से एक व्यक्ति आगे बढ़कर कुल्हाड़ी से गंगनाथ जी कि गर्दन पर वार कर देता है।

गंगनाथ जी को समझने का समय ही नहीं मिल पाता और इस प्रहार से उनकी मृत्यु हो जाती है। फिर सभी लोग गंगनाथ जी को उठा के उसी कुएं में फेंक कर चले जाते हैं। जोशी जी की चिंता का अंत हो गया था और इसके पश्चात् वह आधि रात को अपने घर चले जाते हैं।

जैसे ही जोशी जी घर के अंदर जाते है, तो वह देखते हैं कि भाना ने अपने सारे बाल फैलाकर कमरे में गोल-गोल चक्कर लगा रही है। यह  देख के जोशी जी ने कहा, "तू यह क्या कर रही है सोई नहीं अभी तक", जोशी जी की आवाज सुनकर भाना रुक जाती है। जोशी जी को घूर के देखती है और भारी आवाज़ में कहती है, "मार आये तुम मुझे वहां।" भाना का यह रूप जोशी जी ने पहली बार देखा था। उन्होंने घबराते हुए कहा, "बेटी! तु ये क्या कह रही है।" भाना इतना कहते ही घर से बाहार भाग जाती है।

उसके पीछे-पीछे जोशी जी भी चिल्लाते हुए भागते हैं और कहते हैं, "रुक जा बेटी! यह क्या कर रही है तू।" जोशी जी की आवाज सुनकर और भी लोग जोशी जी के पीछे-पीछे आते हैं। भाना भी उसी कुएं के पास जाकर रूक जाती है। जोशी जी कहते हैं, "तू यहाँ क्या करने आयी है।" तब भाना कहती है, "तूने मुझे मार कर भाना से अलग किया और अब मैं भाना को अपने साथ लेकर जा रहा हूँ।" इतना कहकर भाना कुएं में कूद जाती है। यह देखकर जोशी जी बेहोश हो जाते हैं और उनके होश में आने पर वो पगलों की तरह व्यवहार करने लगते है।

 

 

जब पुरे राज्य में यह खबर फैलती है तो राज्य में चारों ओर भय और अव्यवस्था फैलने लगती हैं। लोग घरों से निकलने में भयभीत होने लगते है और कहते है, "गंगनाथ जी ने पूरे राज्य की सम्रधि को हिला के रख दिया।" राजा भी अपनी राज्य के लिए बहुत चिंतित थे। तभी कुछ और जोशी परिवार वहां पहुंचे। तब राजा ने उन्हें सारी बात समझाई और कोई उपाय करने को कहा।

तब उनसब ने निश्चय किया कि धोके से हुई मृत्यु के कारण गंगनाथ जी की आत्मा को शांति नहीं मिली। हमें उनके प्रकोप को कम करने के लिए उनकी पूजा करनी चारिए और उनका मंदिर बनवाकर उन्हें भगवान घोषित करवा देना चाहिए। राजा ने जोशी सदस्यों की राय पर तुरंत अमल किया और तब से लोग वीर गंगनाथ जी की पूजा करने लग गए। गंगनाथ जी को न्याय का देवता भी कहा जाता है और कहा जाता हैं कि यह प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि भी प्रदान करते हैं।

जब वह मृत्यु के बाद भाना के शरीर में आते हैं तो उसी रूप को "भनभामणी" नाम से पुकारा जाता है। यह भी कहा जाता है कि मर्त्यु के बाद सबसे पहले स्त्री में आने कि वजह से वह अधिकतर स्त्री के शरीर में ही आते है। गंगनाथ जी पूजा लगभग पूरे उत्तराखंड में होती है। सभी उत्तराखंड वासियों की गंगनाथ जी में बड़ी आस्था है।

गंगनाथ मंदिर की मान्यता

  • कार्तिक पूर्णिमा के दौरान मंदिर में आकर्षक मेला का आयोजन किया जाता हैं, जिसके द्वारा गंगनाथ देवता के प्रति लोगों की आस्था प्रतीत होती हैं। गंगनाथ देवता के बारे में यह कहा जाता हैं कि गंगनाथ देवता ज्यादातर बच्चों व खूबसूरत औरतों को चिपटता है।
  • जब भी कोई भूत प्रेत से सताया जाता है या किसी अन्यायी के फंदे में फंसता है, तो वह गंगनाथ के ही शरण में जाता है और उसकी गंगनाथ अवश्य रक्षा करते हैं।
  • अन्यायी को दंड और भूत प्रेतबाधा को दूर करते हैं। गंगनाथ को छोटा बकरा, पूरी, मिठाई, माला, वस्त्र, जोगिया झोला, जोगियों की बालियां और भाना को आंगड़ी, चद्दर नथ बच्चे को कोट तथा कड़े चढ़ाए जाते हैं। उत्तराखंड के अनेको क्षेत्रो में गंगनाथ देवता को गंगनाथ चाचर, गद्याली अन्य रूप में पूजा जाता हैं।

 

जय गंगनाथ।”