चढ़ने को जिस शिखर पर नज़र तक डरती है
बोझ ढोकर तू वहां से सहज उतरती है
सूर्य की किरण जहाँ झांकने से कांपती है
उन वियावान विपिनों में तू बांग देती है
जिस खेत-बंजर में सब्बल की नोक मुड़ती है
उस ऊखड़ धरती को तू सरस गोड़ती है
निठुर हेमंत में जहाँ आग भी दम तोड़ती है
नंगी हथेलियां तेरी वहां बर्फ सोरती है
जिन पाषाणों को "मैग्जीन" न फोड़ पाती है
उन चट्टानों को तू हाथ से तोड़ जाती है
जिन ऊबड़-खाबड़ में आँख डगमगाती है
उन राहों पर तू नंगे पेअर दौड़ लगाती है
लंबे चीड़-वृक्षों जहाँ चिड़ियाँ बैठने को डरती है
उन दुर्गम ऊंचाईयों पर तू निडर चढ़ती है
फिर इन बंधनों से क्यों नहीं तू लड़ती है
पारंपरिक तटबन्धों को क्यों नहीं तू तोड़ती है
जन्म से जीवनपर्यत्न सौगात में मिली पीर
पर्वत-पाषाण-सा दुःख पी गया दृगों का नीर
जिससे शिशु बनता प्रबल प्रवीण रणधीर
तेरे आँचल का वह सूख गया है क्षीर
जिन्हें बड़ा किया तेरी ममता ने सींच-सींच कर
बेगाने हुए वो तुझे एकाकी की छोड़कर
बिछोह की अग्नि मैं जलता हर पल, पहर
रुखा-सूखा बीत रहा तेरे जीवन का सफर
जल नहीं चिंता की चिता में यों बैठकर
मुक़ाबला खुद कर हर बंधन से डटकर
मत रह अब यों भोग की वस्तु बनकर
हो जा अब संकल्प सहित तू अग्रसर
सोई हुई है क्यों हे नारी ! पहाड़ की
उठ तीलू रौतेली ! क्यों नहीं नींद से जागती
नारी वो देख आज की, कितनी दूर भागती
तू लकीरें पीटती आज भी अपने भाग की !