The Veer Chandra Singh Garhwali

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  • 9 Jul
  • 2019

The Veer Chandra Singh Garhwali

वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली उत्तराखंड की महान  विभूतियों में महत्वपूर्ण स्थान रखते है। इन्हे  भारतीय इतिहास में पेशावर कांड के नायक के रूप में प्रसिद्ध  है। २३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था। आजादी की लड़ाई में इनका यह कदम एक मील के पत्थर साबित हुई। अंग्रेज सरकार कोसेना की और से  यह कदम भयभीत कर देने वाला था।

 

 

वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का जन्म 24 दिसंबर 1891 को मेसन, पट्टी चौहान, तहसील थलीसैंण जिला गढ़वाल (वर्तमान में उत्तराखंड) में हुआ था। इनके पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। और वह एक किसान थे। माता पिता के अनपढ़ होने के कारण  वो इन्हे भी शिक्षित नहीं कर सके पर चन्द्र सिंह ने अपनी मेहनत से ही पढ़ना लिखना सीख लिया था। उनका वास्तविक शिक्षक वह समृद्ध अनुभव था जो उन्होंने सेना में अपनी सेवा के दौरान अपनी व्यापक और विविध यात्राओं में और कारावास की लंबी शर्तों के साथ इकट्ठा किया था, जिसका सामना उन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी लड़ाई में साहस और धैर्य के साथ किया था। इनके पूर्वज चौहान वंश के थे ये पहले  मुरादाबाद में रहे  पर काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर रहने लगे। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया।

 

  • 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध का चल रहा था। 1915 में चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया। यह से से वे  1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। तत्पश्चात 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया।
  • प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को उनके पद से निकलना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। और इसी कारण चंद्र सिंह को भी हवलदार से सैनिक बना दिया गया था। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इस दौरान इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया।
  • जब इनकी गढ़वाल बटालियन को  1920 में बजीरिस्तान भेजा गया, इसके  बाद इनकी पुनः तरक्की हो गयी। वहाँ से वापस आने के बाद इनका ज्यादा समय आर्य समाज के कार्यकर्ताओं के साथ बीतने लग गया था। और इनके अंदर देश प्रेम का भाव जाग्रत हो गया। अंग्रेजों को इनके स्वदेश प्रेम की भनक लग गयी और इन गति विधियों से दूर रखने के लिए उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। और इस समय तक इनको हवलदार का पद भी मिल चुका था।

 

  • 23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्साखानी बाजार पुलिस चौकी के सामने हजारों पठान इकट्ठा हुए थे और उनके बीच में राष्ट्रीय ध्वज फहर रहा था। गढ़वाल राइफल्स के लोग पठानों के सामने खड़े थे और सैकड़ों लोग अपने घरों और छत के ऊपर से देख रहे थे। ब्रिटिश कैप्टन ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने की चेतावनी दी लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। जब गुस्से की लहर में वह चिल्लाया, 'गढ़वाली तीन राउंड फायर', एक समान रूप से दृढ़ आवाज में 'गढ़वाली संघर्ष विराम' कहते हुए सुना गया, और गढ़वाली सैनिकों ने अपनी राइफ़लों को जमीन पर उतारा। चंद्र सिंह गढ़वाली की आवाज एक बार फिर से यह घोषित करने के लिए निकली कि वे निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाएंगे, भले ही कप्तान उन्हें गोली मार दें। यह साहस का अद्भुत प्रदर्शन था। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक असाधारण क्षण।
  • इन्होने निहत्थे पर वार करना ठीक नहीं समझा, और आंदोलन करियो पर गोली चलने से इंकार कर दिया। इसी कारण से पेशावर कांड में गढ़वाल बटालियन ने नए आयाम स्थापित किये, और इसी के बाद से चन्द्र सिंह को चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम मिला और इनको पेशावर कांड का नायक कहा जाने लगा ।
  • अंग्रेजों की आज्ञा न मानने के कारण गढ़वाल बटालियन के सैनिकों पर मुकदमा चला। जिसमे गढ़वाली सैनिकों की के पक्ष में मुकुन्दी लाल थे , इनके अथक प्रयासों के बाद इनके मृत्युदंड की सजा को काम करवा कर कैद की सजा सुनाई गयी । इस दौरान चन्द्रसिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति ज़प्त कर ली गई और इनकी वर्दी को इनके शरीर से काट-काट कर अलग कर दिया गया।
  • 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली को ऐबटाबाद की जेल में १४ वर्ष के लिए कारावास भेज दिया गया।कुछ समय बाद इनकी सज़ा कम हो गई और 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर 1941 को रिहा कर दिया। परन्तु इनके में प्रवेश प्रतिबंधित रहा। जिस कारण इन्हें यहाँ-वहाँ भटकते रहना पड़ा ।
  • क्योंकी ये गाँधी जी से बेहद प्रभावित थे तत्पश्चात अन्त में ये गांधी जी के संपर्क में आये। 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई और फिर से 3 साल के लिये गिरफ्तार हुए, 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया।
  • 22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली।

 

 

रोचक तथ्य
  • एक बार एक अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर की पत्नी गांव वालों से इसलिए नाराज हो गई थी कि वे ढंग के कपड़े नहीं पहने हुए थे। गांव के स्त्री-पुरुषों को पौड़ी तलब किया गया। एक तो पचासों मील की दूरी, दूसरी ओर अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर से कठोर सजा मिलने का भय। तब अंग्रेजों का बड़ा दबदबा और आतंक था । गांव के पुरोहित ने रास्ता सुझाया कि यदि कोई साहब के सिर पर उसके द्वारा मंत्रित भभूत डाल दे तो साहब का कोप शांत हो जाएगा। भला कौन कर पाता ऐसा दुस्साहस? लेकिन बालक चंद्रसिंह ने गांव वालों के साथ पौड़ी जाकर, चुपके से साहब की कुर्सी के पीछे जाकर साहब के सिर पर भभूत झाड़ दी। साहब ने सजा नहीं दी और गांव वाले, हंसी-खुशी चंद्रसिंह का गुणगान करते वापस गांव लौट आए।
  • जब महात्मा गांधी जून 1929 में बागेश्वर, अल्मोड़ा में एक जनसभा में उत्तराखंड में आए, तो चंद्र सिंह गढ़वाली ने गांधी जी का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने टिप्पणी की कि वह सेना से डरते नहीं थे, चंद्र सिंह गढ़वाली ने उत्तर दिया। उस,। अगर वह ऐसा चाहते, तो गांधीजी टोपी बदल सकते थे। जब गांधीजी ने उन्हें खादी की टोपी भेंट की, तो सैनिक ने एक दिन टोपी के सम्मान को भुनाने का संकल्प लिया।

 

  • वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में महात्मा गांधी के शब्द थे “यदि मेरे पास एक और चंद्र सिंह गढ़वाली होता, तो भारत बहुत पहले स्वतंत्र हो जाता। "
  • मृत्युशय्या पर लेटे पंडित मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि, ‘वीर चंद्रसिंह गढ़वाली को देश न भूले।

 

1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।यह वो वीर था, जिसको इतिहास करो ने भले हे विस्मृत कर दिया हो। परन्तु उत्तखण्ड के इतिहास मैं यह आज भी अजर और अमर है। और रहेगा।