उत्तराखंड के गढ़वाल (मंडल) परिक्षेत्र में अनेकों जातियों का निवास है। उनका इतिहास हमारी धरोहर है। गढ़वाल में निवास करने वाली ब्राह्मण जातियों के बारे में यह माना जाता है कि 8 वीं - 10 वीं शताब्दी के मध्य में ये लोग अलग-अलग मैदानी भागों से आकर यहां बसे और यहीं के रैबासी (निवासी) हो गए। गढ़वाल में प्राचीन समय से ब्राह्मणों के तीन वर्ग हैं। इतिहासकारों ने उन्हें सरोला, निरोला (नानागोत्री या हसली) तथा गंगाड़ी नाम दिए हैं। राहुल सांकृत्यायन यहां के ब्राह्मणों को सरोला, गंगाड़ी, दुमागी व देवप्रयागी चार श्रेणियों में बांटते हैं। गढ़वाल की ब्राह्मण जातियों को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है।
(1) सरोला ब्राह्मण: "सरोला ब्राह्मण" के अंतर्गत वे ब्राह्मण जातियां आती हैं जिनका मुख्य काम शादी-विवाह व अन्य शुभ-अवसरों पर सम्पूर्ण गांव-कुटुंब-भयात के लिए भात पकाना (खाना पकाना) था, इसीलिए इन्हें "सरोला" कहा जाता है। सरोला ब्राह्मण, वे ब्राह्मण हैं जिन्हें प्राचीन समय में चांदपुर गढ़ी के राजा ने रसोई के रूप में नियुक्त किया था। आरम्भ में सरोलों की बारह जातियां ही थीं। कहा जाता है कि नौटियालों का पूर्व पुरुष जो नौटी गांव में बसा था, गढ़ नरेशों के पूर्वज कनकपाल के साथ गढ़वाल में आया था।
(2) गंगाड़ी ब्राह्मण: "गंगाड़ी ब्राह्मण" के अंतर्गत उन ब्राह्मण जातियों को रखा जाता है जिनकी व्यवहारिकता का क्षेत्र केवल अपनी बिरादरी और अपने सगे-सम्बंधियों या इसके अतिरिक्त कुछ विशेष जातियों तक ही सीमित होता है। पं. रतूड़ी जी का मानना है कि सरोला और गंगाड़ी ब्राह्मण वही ब्राह्मण हैं जिनके मूल पुरुष इस देश के आदिम निवासियों में नहीं थे। बल्कि वे लोग क्रमशः 8 वीं या 9 वीं शताब्दी से और उसके पश्चात भी इस देश में आकर बसे और बसते रहे।
"नानागोत्री या खस ब्राह्मण" गढ़वाल के आदिम निवासी और नवागन्तुक लोगों की मिली-जुली संतान पायी जाती है, जिसके साक्षी रूप उनके आचार-विचार विद्यमान हैं, जो अब भी उनके बीच उसी तरह पाये जाते हैं। गंगाड़ी और सरोला ब्राह्मणों के गोत्र भी एक हैं और धार्मिक और लौकिक रिवाज भी एक हैं। केवल भेद इतना है कि सरोला जाति का पकाया हुआ दाल चावल सब जातियां खा लेती हैं, जबकि गंगाड़ी ब्राह्मणों का पकाया हुआ दाल चावल उनकी रिश्तेदारी में ही चलता है।
"नौटियाल" का इतिहास 'मालवा' के प्राचीन राज्य 'धारा नागरी' के शहर से शुरू होता है। नौटियाल 'भारद्वाज गोत्र' के 'आद्य गौड़ ब्राह्मण' हैं। उन दिनों ब्राह्मणों में बाजपेयी, दुबे, मिश्रा या नौटियाल जैसे उपनाम नहीं थे, लेकिन उनके पहले नाम और 'गोत्र' द्वारा संबोधित किया गया था। संवत 945 में नौटियाल जाति के सरोला लोग, मालवा राज्य से राजा कनकपाल के साथ आकर तली चाँदपुर के 'नौटी गाँव'में बस गए। नौटियाल जाति के लोगों के बसने के कारण ही इस गाँव का नाम नौटी गाँव पड़ा। साथ ही, नौटियाल जाति के वंशजों का आरम्भ इसी गाँव से माना जाता है। ढंगाण, पल्याल, मंजखोला, गजल्डी, चान्दपुरी और बौसोली नामक छः जाति संज्ञा इसी एक जाति की शाखा हैं।
आद्य गौड़ सरोला ब्राह्मण "गैरोला जाति" के लोगों का पैतृक गांव चांदपुर तैल पट्टी माना जाता है। इनके आदि पुरुष जयानन्द और विजयानन्द संवत 972 में गैरोली गांव में आकर बसे थे। इसी कारण ये 'गैरोला' कहलाए।
मूलरूप से सरोला द्रविड़ ब्राह्मण हैं, जो रामनाथ विल्हित नामक स्थान से संवत 924 में आकर गढ़वाल के चांदपुर के "चमोली" नामक गांव में आकर बस गए थे। यह जाति सरोलाओं में प्रमुख मानी जाती है, जो मूल रूप से 'चमोली गाँव में बसने से 'अस्तित्व में आई थी जिसे पंडित धरनी धर, हरमी, विरमी ने बसाया था और इस गाँव के नाम पर ही ये जाति 'चमोली' कहलाई। यह जाति सरोलाओं के 'बारह- थोकी' समुदाय का अंग है। साथ ही, नंदादेवी राजजात यात्रा में इस जाति के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
"डिमरी" ब्राह्मण दक्षिण भारत के द्रविड़ ब्राह्मण माने जाते हैं। इनके मूल पुरुष राजेन्द्र और बलभद्र संतोली, कर्नाटक से आकर गढ़वाल में चांदपुर के डिम्मर गांव में आकर बस गए थे, जिसके फलस्वरूप ये 'डिमरी' कहलाए।
"थपलियाल" 1100 साल पहले पट्टी सीली चांदपुर के 'ग्राम थापली' में आकर बस गए। इनके आदी पुरुष जैचानद माईचंद और जैपाल, जो गौड़ ब्राह्मण है। थपलियाल, गढ़वाली ब्राह्मणों की बेहद खास जाति है, जिनकी आराध्य माँ ज्वाल्पा है। थपलियाल अद्या गौड़ हैं, जो गौड़ देश से संवत 980 में थापली गाँव में बसे और इसी नाम से उनकी जाति संज्ञा थपलियाल हुई। ये जाति भी गढ़वाल के मूल बराथोकी सरोलाओ में से एक है। नागपुर में थाला थपलियाल जाति का प्रशिद्ध गाँव है, जहाँ के विद्वान आयुर्वेद के बड़े सिद्ध ब्राह्मण थे। थपलियाल जाति के लोग चांदपुर गढ़ी के अलावा देवलगढ़, श्रीनगर और टिहरी में भी प्रसिद्ध रहे हैं।
गढ़वाल की सरोला जाती में "बिजल्वाण" एक प्रमुख जाति है। गौड़ ब्राह्मण 'बिजल्वाण जाति' के आदि पुरुष बिज्जू नामक व्यक्ति थे, जो संवत 1100 में वीरभूमि बंगाल से आकर गढ़वाल में बस गए थे। संभवतः उन्हीं के नाम पर ही इस जाति का नाम 'बिजल्वाण' पड़ा।
आद्य गौड़ सरोला ब्राह्मण "लखेड़ा जाति" के मूल पुरुष नारद और भानुवीर संवत 1117 में प. बंगाल के वीरभूमि से आकर गढ़वाल के लखेड़ी नामक गांव में आकर बस गए थे। उत्तराखंड के लगभग 70 गांवों में फैले लखेड़ा लोग एक ही पुरूष श्रद्धेय भानुवीर नारद जी की संतानें हैं।
गढ़वाल में सरोलाओं के 'बारह-थोकी' समुदाय में से एक ब्राह्मण जाति "खंडूड़ी" मूलतः गौड़ ब्राह्मण जाति है, जिनका आगमन गढ़वाल के खंडूड़ी के गांव में संवत 945 में वीरभूमि बंगाल से हुआ। इनके मूल पुरुष सारन्धर एवं महेश्वर खंडूड़ी गाँव में बसे और 'खंडूड़ी जाति' के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस जाति के अनेक वंसज गढ़वाल राज्य में दीवान एवं कानूनगो के पदों पर भी रहे। बाद में इन्हें राजा द्वारा थोक-दारी दे कर गढ़वाल के विभिन्न गाँव को जागीर में दे दिया गया।
गौड़ ब्राह्मण "कोटियाल/कोठियाल" गढ़वाल के सरोला जाति की एक प्रमुख जाति है, जो चांदपुर के कोटी गांव में आकर बसी थी और यहां कोटियाल अथवा कोठियाल नाम से प्रसिद्ध हुई। चांदपुर गढ़ी के राजपरिवार द्वारा बाद में कोटी को सरोला मान्यता प्रदान की गयी थी।
"रतूड़ी जाति" को सरोला समुदाय की प्रमुख जाति माना जाता है। यह आद्य गौड़ ब्राह्मण जाति गौड़ देश से संवत 980 में गढ़वाल में आयी और चांदपुर के समीप रतुड़ा गांव में बस गयी। गढ़वाल का सर्व प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय इसी जाति के युग पुरुष टिहरी राजदरबार के वजीर पंडित हरीकृषण रतूड़ी को जाता है। इस जाति के लोगो का भी गढ़वाल नरेशों पर दबदबा लम्बे समय तक बरकरार रहा था।
गढ़वाल की सरोला जाति में से एक "सती" गुजरात से आई ब्राह्मण जाति है,जो चांदपुर गढ़ी के शासकों के निमंत्रण पर चांदपुर और कपीरी पट्टी में बसी थी। इस जाति की एक उप-शाखा 'नौनी/नवानी' भी है। इस जाति के लोग गढ़वाल के गढ़वाल के अलावा कुमाऊं में भी हैं।
"कंडवाल" मूलतः सरोला ब्राह्मण हैं, जो गढ़वाल के 'कांडा गांव' में बसने से कंडवाल कहलाये। गढ़वाल के इतिहास में क्रमांक 19 से 26 तक की कुल आठ जातीय सरोला सूची में शामिल की गयी है जिनमें 'कंडवाल' जाति भी है। कंडवाल जाति मूलतः 'कुमाऊँनी जाति' है जो 'कांडई' नामक गाँव से यहाँ चांदपुर में सबसे पहले आकर बसी थी, जिनके मूल पुरुष का नाम आग्मानंद था। नागपुर की एक प्रसिद्ध जाति कांडपाल भी इससे अपना सम्बन्ध बताती है, जिनके अनुसार (कांडपाल) का मूल गाँव कांडई आज भी अल्मोड़ा में है जहाँ के ये मूलतः कान्यकुब्ज (भारद्वाज गोत्री) कांडपाल वंसज है। यही कुमाऊँ से सन् 1343 में श्रीकंठ नाम के विद्वान से निगमानंद और आगमानद ने कांडपाल वंश को यहाँ बसाया था, जिनमें से एक भाई चांदपुर में बस गया और राजा द्वारा इन्हें ही सरोला मान्यता प्रदान कर दी गयी और चांदपुर में ये लोग कंडवाल नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी जाति के दुसरे स्कन्ध में से निगमानंद ने सन् 1400 में कांडई गाँव बसाया थ। इसके साथ ही, कांडई में बसने से इन्हें 'कंडयाल' भी कहा गया जो बाद में अपने मूल जाति नाम "कांडपाल" से प्रसिद्ध हुई।
गढ़वाल में गंगाड़ी ब्राह्मणों में प्रमुख आद्यगौड़ ब्राह्मण "बहुगुणा जाति" संवत 980 में गौड़ बंगाल से गढ़वाल के 'बुघाणी' नामक गांव में आकर बसी। बुघाणी गांव में बसने के कारण ही ये 'बहुगुणा' कहलाए। बहुगुणा जाति को चौथोकी समुदाय (डोभाल, बहुगुणा, डंगवाल और उनियाल) के अंर्तगत रखा जाता है।
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा 'गंगाड़ी' ब्राह्मणों में "डोभाल जाति" के लोग संवत 945 में संतोली, कर्नाटक से आकर गढ़वाल के डोभा गांव में आकर बसे, इसीलिए ये 'डोभाल' कहलाए। इस जाति के मूल पुरुष कर्णजीत डोभा ही सर्वप्रथम डोभा गांव में आकर बसे थे। गढ़वाल के पुराने राजपरिवार में इस जाति के लोग बड़े पदों पर भी रहे है।
संवत 981 में मिथिला से जयानंद और विजयाचंद नामक दो पृथक गोत्री ममेरे-फुफेरे भाई (ओझा और झा) दरभंगा (मगध-बिहार) से श्रीनगर, गढ़वाल के वेणी गांव में आए और वहीं बस गए, वे मैथिली ब्राह्मण थे। वहीं से "उनियाल" जाति का आरम्भ हुआ। प्रसिद्ध कवि विद्यापति और राजनीतिज्ञ/अर्थशास्त्री 'चाणक्य (कौटिल्य)' उनके पूर्वजों में से एक थे। उन्हें 'ओनी' में जागिर दी गई थी, इसलिए ओझा और झा (दो अलग गोत्र-कश्यप और भारद्वाज) को एक जाति ओनियाल में बनी, जो बाद में 'उनियाल' बन गई। माता भगवती सभी उनियाल, ओझा, झा और द्रविड़ ब्राह्मणों की कुलदेवी हैं।
"नैथानी" मूलरूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं जो संवत 1200 में कन्नौज से आकर गढ़वाल के 'नैथाणा गांव' में आकर बस गए थे। इस जाति के मूल पुरुष कर्णदेव और इंद्रपाल ही सबसे पहले गढ़वाल में आए थे। साथ ही, श्री भुवनेश्वरी सिद्धपीठ (मन्दिर) का प्रबन्ध एवं व्यवस्था भी नैथानी जाति के लोग ही देखते हैं।
गढ़वाल नरेशों द्वारा मुआफी के हक़दार भारद्वाज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की यह शाखा संवत 1700 के आसपास अवध से 'सकलाना गाँव' में बसी। इनके मूल पुरुष नाग देव ने ही सकलाना गाँव बसाया था, बाद में इस जाति के नाम पर इस पट्टी का नाम 'सकलाना' पड़ा। राज पुरोहितो की यह जाति अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण राजा द्वारा विशेष सुविधाओं से आरक्षित किये गये थे और जागीरदारी भी प्रदान की गयी। इन जाति के लोगों को 'पुजारी' भी कहा जाता है।
"पैन्यूली" मूलतः गंगाड़ी गौड़ ब्राह्मण हैं जो संवत 1207 में मूल पुरुष ब्र्ह्मनाथ द्वारा 'पाण्याला गांव' गाँव रमोली में बसने से इस जाति का नाम पैनुली/पैन्यूली प्रसिद्ध हुआ। इस जाति के कई लोग श्रीनगर राज-दरबार और टिहरी में उच्च पदों पर आसीन हुए। इस जाति के श्री परिपूर्णा नन्द पैन्यूली 1971-1976 में टिहरी गढ़वाल के संसद भी रहे है।
गढ़वाल के नरेश राजा महिपति शाह द्वारा 14वीं और 15वीं सदी में चोथोकी समुदाय में वृद्धि करते हुए 32 अन्य जातियों को भी इस समुदाय में शामिल किया गया, जिनमें "ढौंडियाल" प्रमुख जाति थी। इस जाति के मूल पुरुष रूपचंद गौड़ ब्राह्मण थे जो राजपुताना से संवत 1713 में गढ़वाल के 'ढौंड गांव' में आकर बस गए थे। इनके द्वारा ही 'ढौंड गांव' बसाया गया था, जिस कारण इन्हें 'ढौंडियाल' कहा गया।
"नौडियाल" मूलतः गढ़वाली गंगाड़ी गौड़ ब्राह्मण हैं, जो अपने मूल स्थान 'भृंग चिरंग' से सम्वत 1600 में गढ़वाल के 'नौड़ी गांव' में आए और वहीं बस गए। इनके मूल पुरुष पंडित शशिधर द्वारा ही नौड़ी गांव बसाया गया था। इसी गांव के नाम पर ही इस जाति को 'नौडियाल' कहा गया।
"ममगाईं" मूलतः गौड़ ब्राह्मण है जो उज्जैन, महाराष्ट्र से आकर गढ़वाल में बसे और मामा के गांव में बसने के कारण 'ममगाईं' नाम से प्रसिद्ध हुए। इस जाति के लोग मूलतः पौड़ी जिले में बसे हैं, लेकिन 'टिहरी और उत्तरकाशी' में भी इस जाति के कुछ गांव मिलते हैं। महाराष्ट्र मूल होने से वहां भी इस जाति के कुछ लोग रहते है। साथ ही, नागपुर में भी इस जाति के कुछ परिवार बसे हैं जिनके रिश्ते नाते टिहरी और श्रीनगर के ब्राह्मणों से होते है।
"बड़थ्वाल" मूलतः सारस्वत ब्राह्मण हैं जो संवत 1543 में गुजरात से आकर गढ़वाल में बस गए थे। इस जाति के मूल पुरुष पंडित सूर्य कमल मुरारी गढ़वाल के 'बड़ेथ' नामक गांव में बसे, बाद में इनके वंशज 'बर्थवाल/बड़थ्वाल जाति' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
गढ़वाल के गंगाड़ी सारस्वत ब्राह्मण पांथरी जाति संवत 1600 में जालंधर से आकर गढ़वाल के 'पंथर गाँव' में आकर बसे और "पांथरी" नाम से जाने जाते हैं। इस जाति के मूल पुरुष अन्थु पन्थराम ने ही पंथर गाँव बसाया था।
पुरोहितो का आगमन संवत 1663 में जम्मू कश्मीर से हुआ था। ये जम्मू कश्मीर राज-परिवार के कुल "पुरोहित" थे। साथ ही, राजा के यहाँ पुरोहिताई (पोरिह्त्य कार्य) करने से ये 'पुरोहित' नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके पहले गाँव दसोली, कोठा, बधाण में बसे, तत्पश्चात ये संवत 1750 में नागपुर पट्टी में भी बस गए थे।
"काला जाति" गढ़वाल की वह प्रसिद्ध जाती है जिसने आजादी के बाद सबसे बेहतर प्रगति की है। इस जाति में अभी तक सबसे अधिक प्रथम श्रेणी के अधिकार मौजूद है। पौड़ी गढ़वाल 'सुमाड़ी' नामक गांव इस जाति का सबसे अधिक प्रसिद्ध गाँव है, जहाँ के पन्थ्या दादा एक महान इतिहास पुरुष हुए है।
"भट्ट" एक विशेष जाति संज्ञा है जिसका आशय 'प्रसिद्धि और विद्वता' से है। सामान्यतः ये एक प्रकार की उपाधि थी जो राजाओं द्वारा प्रदत होती थी, गढ़वाल की अन्य जाति संज्ञा के अनुरूप ये उपाधि भी बाद में जातिनाम में बदल गय। कुछ लोग इनका मूल 'भट्ट' ही मानते है। गढ़वाल में भट्ट जाति सबसे अधिक प्रसार वाली जाति संज्ञा है। भट्ट जाति के लोग मूलतः दक्षिण भारतीय मूल के माने जाते हैं। यह गढ़वाल की एकमात्र जाति है जो सरोला, गंगाड़ी और नागपुरी ब्राह्मणों की सूची में शामिल की गयी है।
"पोखरियाल" मूलतः गौड़ ब्राह्मण हैं जो संवत 1678 में 'विलहित' से आकर पोखरी गाँव जिला पौडी गढ़वाल, चमोली और टिहरी में बसने से पोखरियाल प्रसिद्ध हुए। इनके कुछ लोग नेपाल में प्रसिद्ध "शिव मंदिर पशुपति नाथ" में पूजाधिकारी हैं।
"बेंजवाल" कान्यकुब्ज ब्राह्मण जाति के लोग गढ़वाल के अगस्त्यमुनि क्षेत्र में 'बेंजी गांव' के निवासी हैं जो 11 वीं शताब्दी में बीजमठ महाराष्ट्र से यहां आकर बसे। बेंजी गांव में बसने के कारण ही इन्हें 'बेंजवाल' कहा गया। प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिन्सन ने हिमालयन गजेटियर में भी इस जाति वर्णन किया है। ऐसा माना जाता है कि यह ब्राह्मण जाति अगस्त्य ऋषि के साथ आये 64 गोत्रीय ब्राह्मणों में से एक थी।
"पन्त" मूलतः भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण हैं जिनके मूल पुरुष जयदेव पन्त का कोकण महाराष्ट्र से 10 वीं सदी में चंद राजाओं के साथ कुमाऊँ में आगमन हुआ। तत्पश्चात इनके वंशज शर्मा श्रीनाथ नाथू एवं भावदास के नाम भी चार थोकों में विभाजित हुए, जिनसे बाद में मूल कुमाऊंनी पंत ब्राह्मण जाति का आविर्भाव हुआ। बाद में इस जाति के कुछ परिवार गढ़वाल के विभिन्न इलाको में बसे और वहीं के मूल निवासी हो गए। 'पन्त जाति' का नागपुर में प्रसिद्ध गाँव कुणजेटी है। ये नागपुर के 24 मठ मंदिरों में आचार्य वरण के अधिकारी है। इसके अलावा जखमोला, गोदियाल, उपाध्याय, कुकसाल/खुग्साल और खंतवाल आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं लेकिन इनके बारे में जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी।
"कुकरेती" मूलतः द्रविड़ ब्राह्मण है,जो विलहित नामक स्थान से संवत 1352 में आकर गढ़वाल में बसे और फिर यहीं के निवासी हो गए। इनके मूल पुरूष गुरुपती कुकरकाटा गाँव में बसे थे, यहीं बसने के कारण ही से ये 'कुकरेती' नाम से प्रसिद्ध हुए।
"कुनियाल" मूलतः कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं, जो कि कन्नौज से गढ़वाल में आए थे। ब्राह्मणों में सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण "कान्यकुब्ज" माने जाते हैं। कान्यकुब्ज दो शब्दों - 'कान्य' और 'कुब्ज' अर्थात् सौ कुबड़ी कन्याओं से जिनकी उत्पन्न हुई, वे 'कान्यकुब्ज' कहलाए। इसके साथ ही, ये कुनि गांव में बसने के कारण कुनियाल कहलाये। मां नंदा देवी के पुजारी और नंदा देवी राजजात के होमकुंड में कुनियाल ब्राह्मण ही पुजारी होते हैं व लाटू धाम वाण में भी कुनियाल ही पुजारी हैं। साथ ही, र्तमान में चमोली के देवाल ब्लॉक में बमणबेरा कुनियालो का मुख्य गांव है।